ये है मेरी जिंदगानी

कुदरत के आंचल में पैदा हुआ, पहाड़ों में पला बढ़ा, नदियों ने दी जिंदगी को रफ्तार, चिड़ियों की चहचाहट ने सिखाया मुस्कुराना, देवभूमि उत्तराखंड की गोद में सीखे संस्कार, शायद यही है वजह कि,,,, झकझोर देता है मुझे कुदरत का दर्द,, और कसमसा उठता हूं मैं.. देश के कई कोनों ने दिए खट्टे मीठे अनुभव, उन्ही का इस्तेमाल कर अपनो के बेगाने शहर दिल्ली में, अपनी जमीन तलाशने की कोशिश कर रहा हूं. और पेशे से एक नवोदित पत्रकार हूं.

Thursday, May 15, 2008

सुना है कि

सुना है कि वो लफ्ज़ है जो आमतौर पर हमारे कानो से होकर गुजरता ही है। मगर कोई असर शायद ही छोड़ पाता है।
इसका एक नमूना पेश करता हूं
एक बार मैं अपने घर पर बैठा हुआ डिस्कवरी चैनल देख रहा था, तभी मेरे अंकल बोले, सुना है कि.. जंगल कम हो रहे हैं.. जानवर भी गायब हो रहे हैं..
मेरा जवाब था.. आपको आज पता चला है क्या..वो बोले बस सुना ही है..पता नही लोग तो बोलते रहते हैं....मतलब ये कि किसी को कोई मतलब नही है कि हमारा ये अंधा सफर जा कहां रहा है.. और आज जिस धरती पर हम रह रहे हैं.. उसका क्या हाल है.. हर कोई अपनी चिंताओं में डूबा हुआ है.. और जब इस तरह की कोई खबर या चर्चा सामने आती है..तो सिर्फ तीन आधे अधूरे बोल निकलते हैं..सुना है कि या फिर सुना तो है।
यानि अभी कुछ ही लोग हैं जो इस अंधेरे सफर में भी सिर्फ इसलिए अपनी आंखे खोले हुए हैं..ताकि और लोग इस अंधेरे सफर में ही गुम न हो जाएं।

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