ये वाक्या जुड़ा है मेरे बेहद ही निजी अनुभव से...
देश के एक कोने में एक बाघ को चंद रूपयों के लालच में शिकार बना दिया गया॥खबर मेरे सामने आई, तो कुदरत के काफी करीब रहने या फिर यूं कहिये कि जल जंगल जानवरों में ही रचा बसा होने के कारण खबर को काफी अच्छी तरह से बनाने की ललक जोर मारने लगी।
मैं अपने इंचार्ज साहब के पास पहुंचा और खबर के बारे में बताया तो जवाब में तल्खी और व्यंग का मिला जुला पुट था....... अरे यार ये बिकता नही है....रामसेतु पर बवाल मचा है नेता एक दूसरे की नीच पापी जैसे शब्दों से ताजपोशी कर रहे हैं उसे बनाओ क्या रखा है जल जंगल और जानवरो में।
मैने कहानी कूड़े के डिब्बे में फेंकने का मन बनाया और कूढ़ेदान की ओर रूख किया मगर फिर ,सोचा चलो रख लेता हूं मेरे काम तो आएगी।
इसके के बाद सरकार ने बाघों पर रिपोर्ट जारी कि॥और देश भर की मीडिया में मच गया हल्ला बाघ बचाओ बाघ बचाओ...
अब इसके आगे क्या कहूं समझ नही आता।
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1 comment:
बढ़िया लिखा है .. संवेदनाओं के शहर में घूमने की आदत जब होती है तो ऐसी ठोकरें ज्यादा दर्द देती हैं..ईश्वर से प्रार्थना करता हूं तुम्हारी संवेदनायें हमेशा ज़िंदा रहें..
दिनेश काण्डपाल
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